तुझे शब्दों में समेटूँ
तों तूँ कोई पंक्ति बन जाता है...
तुझे पंक्ति में रचूँ
तों तूँ कोई काव्य बन जाता है..
तुझे काव्य में सिंचूँ
तों तूँ कोई उपन्यास बन जाता है...
मेरी स्याही में ऐसा रंग चढ़ा है तेरा
जितना तुझे छूँऊ
उतना तूँ गाढ़ा हों जाता है..
तुझे रचते रचते मैं तुझमें ऐसी रम चूकी हूँ
मेरी रूहें दास्ताँ में
तेरा सिर्फ़ ज़िक्र हो, यें बात ही बेईमानी है
मेरा आरंभ और अंत तेरे नाम से ही सजा जाता है...
परिधि
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