जब पहली दफ़ा तुमने मेरे चेहरे को पलूँ से ढका था ,
यें कहते हुए की अब मैं महफ़ूज़ हूँ
जानते हों, उस दिन तुमने मुझे सिर्फ़ औरत बना,
मेरा इंसान होने का हक़ छिना था...
मैं उस पलूँ की ओट से ताकती रही
कल तक जो नज़र उठाने पे पूरा आसमाँ मेरा था,
आज़ मैं रोशनी के उतने ही टुकड़े की मोहताज हुई
जीतना फैला मेरा आँचल था...
मैं फिर भी स्तब्ध खड़ी रही
आस में, तुम्हारी राह में
तुम जल्द आऊंगे और मुझे मेरे हिस्से का आसमाँ लौटाऊँगे
पर सदियाँ बीत गयी
वो पलूँ
हिफ़ाज़त से ईमान
ईमान से तहज़ीब
तहज़ीब से महज़ब
महज़ब से मेरी तक़दीर बन गया..
और आज तक़दीर को बदलने अपने हाथों में मैंने जो कलम उठाया है,
अपने हिस्से का आसमाँ फिर से पाने की जुर्रत की है
तो तुम मुझे मेरी औरत होने की हिदायत दे रहे हो,
मुझे रस्मों और तहज़ीब में बांध, मेरे आँचल की ओट को और गहरा करना चाह रहे हो,
अब किस बात का डर है तुम्हें
क्या मेरी आज़ाद उठती नज़रों का....
परिधि
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